हूल दिवस पर हंगामा: भाजपा से बड़ा सवाल — श्रद्धांजलि या सियासत?

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1855 की वो दास्तान, जब सिदो-कान्हू ने अंग्रेजों के खिलाफ हुंकार भरी थी।
जब “हूल” शब्द, बगावत का प्रतीक बना था।
और जब भोगनाडीह की मिट्टी में शहीदों का लहू समा गया था।

लेकिन सवाल ये है — 2025 में हूल दिवस पर क्या हुआ? श्रद्धांजलि दी गई? या राजनीति की हूल मचाई गई?

क्या भाजपा सच में आदिवासियों की हितैषी है?
अगर है, तो सिदो-कान्हू की धरती पर उस दिन शांति क्यों नहीं थी?
श्रद्धा की जगह शोर क्यों था?
वीर शहीदों की आत्मा की शांति के बदले, सत्ता की भूख का प्रदर्शन क्यों?

भाजपा बताएं — वीर सपूतों को श्रद्धांजलि देने का तरीका क्या यही है?
उनके वंशजों को मंच का मोहरा बनाकर हंगामे का चेहरा बना देना?

भाजपा कहती है, वो आदिवासी समाज के साथ है।
तो फिर सरना धर्म कोड पर चुप्पी क्यों है?
1932 की स्थानीय नीति पर निर्णय क्यों नहीं?

क्या आप जानते हैं?

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इन सभी मुद्दों पर केंद्र सरकार को विधिवत पत्र लिखे हैं।
धर्म कोड को संविधान की 9वीं अनुसूची में लाने के लिए विधेयक भी भेजा गया।
लेकिन दिल्ली की सत्ता अब तक मौन है।
क्यों?

सच तो ये है कि भाजपा के लिए आदिवासी समाज सिर्फ एक वोट बैंक है।
एक ऐसा समाज, जिसे हर चुनाव से पहले याद किया जाता है — और फिर भुला दिया जाता है।

भाजपा को ये बात समझ लेनी चाहिए

शहीदों के नाम पर सियासत की दुकान नहीं चलाई जा सकती।
भोगनाडीह की धरती मैदान-ए-जंग नहीं है, ये आदिवासी अस्मिता की चेतना भूमि है।

पिछले कई सालों में भाजपा ने झारखंड में आदिवासी वोट बैंक को साधने के लिए कई प्रयोग किए —
पत्थलगड़ी आंदोलन को देशद्रोह बताना,
मूलवासी-नागरिक पहचान को धुंधलाना,
भूमि अधिग्रहण कानून को कमजोर करना —
लेकिन एक भी प्रयोग सफल नहीं हुआ।

और अब, सिदो-कान्हू के वंशज मंडल मुर्मू को भाजपा ने मंच पर उतारकर फिर वही पुराना दांव खेला —
लेकिन भोगनाडीह गवाह है —
कि वीरों के वंशज सत्ता के गुलाम नहीं, अस्मिता के प्रतीक हैं।

हूल दिवस कोई मेला नहीं — ये आदिवासी गर्व का उत्सव है।
ये उस बलिदान की याद है, जो भारत की आज़ादी की नींव बना।
और जो भी इस दिन को सियासी तमाशा बनाएगा,
इतिहास उसकी भी पहचान तय कर देगा
श्रद्धांजलि देने वाला, या शर्म दिलाने वाला।

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