बयान तो दिया, लेकिन अब वो हमारा नहीं!” – बीजेपी का नया फार्मूला

न्यूज़
Spread the love




“ऊँट की कमर पर आखिरी तिनका कौन सा होगा?”
भारतीय राजनीति में यह कहावत अब शायद बदलनी चाहिए
“बीजेपी के नेता कुछ भी कह दें, लेकिन आखिरी में बोलेगा—ये तो उनका निजी बयान था!”

ताज़ा मामला लीजिए—भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा ने देश की न्यायपालिका और चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया पर बयान दे डाला। संविधान के संरक्षक और लोकतंत्र की रीढ़ पर सीधा हमला! लेकिन जब सवाल उठे, तो पार्टी ने चादर झाड़ते हुए कह दिया—“इन बयानों से भारतीय जनता पार्टी का कोई लेना-देना नहीं है। ये तो उनका व्यक्तिगत विचार है। हम तो सम्मान करते हैं न्यायपालिका का।”

वाह! क्या सुविधा है!

जब अपने नेता संविधान को कठघरे में खड़ा करें, तब पार्टी तुरंत ‘पर्सनल स्टेटमेंट’ की आड़ में छुप जाती है। लेकिन जैसे ही विपक्ष का कोई नेता ज़रा-सा कुछ बोले, बीजेपी की पूरी मशीनरी हंगामा करने निकल पड़ती है—धरना, प्रदर्शन, टीवी डिबेट, हैशटैग ट्रेंड्स और FIR तक!
यानि खुद खाएं आम और दूसरों को गिनवाएं गुठलियाँ!

“जब सास बोले तो अनुभव, और बहू बोले तो बद्तमीज़ी!”
ये कहावत भारतीय राजनीति पर फिट बैठती है। बीजेपी के नेताओं को संविधान की व्याख्या करने, सुप्रीम कोर्ट पर टिप्पणी करने, जजों की नीयत पर सवाल उठाने की पूरी छूट है। लेकिन जब यही बात कोई और कह दे, तो वही पार्टी लोकतंत्र के लिए खतरा घोषित कर देती है।

न्यायपालिका पर ‘निजी हमला’ या ‘पार्टी की सोची-समझी रणनीति’?
यह सवाल अब हर उस नागरिक को खुद से पूछना चाहिए, जो लोकतंत्र में भरोसा रखता है। एक तरफ पार्टी कहती है—“हम कोर्ट का सम्मान करते हैं”, दूसरी तरफ उसके सांसद कोर्ट की गरिमा को ललकारते हैं। ऐसे में बीजेपी की स्थिति उस शेर की तरह हो गई है जो कहता है—“मैं शाकाहारी भी हूं और जंगल का राजा भी!”

मुखौटा पहनकर असली चेहरा छुपाना अब मुश्किल होता जा रहा है।
जनता सब देख रही है, समझ रही है। अब यह फार्मूला—“नेता बोले, पार्टी बोले नहीं”—पुराना पड़ चुका है। लोकतंत्र में जवाबदेही सिर्फ विपक्ष की नहीं, सत्ताधारी दल की भी होती है। और जब देश के सबसे बड़े न्यायिक संस्थान पर हमला हो, तो जिम्मेदारी सिर्फ ‘व्यक्तिगत विचार’ बोल कर खत्म नहीं की जा सकती।

“काजल की कोठरी में सब काले हो जाते हैं,”
लेकिन यहां बीजेपी हर बार सफेद कुर्ता पहनकर निकल आती है।

आख़िर में यही कहा जा सकता है—
“बयान तो दे दिया, लेकिन अब वो हमारा नहीं!”
ये कोई नया सियासी जुमला नहीं, बल्कि लोकतंत्र की रीढ़ पर लगी दरार का संकेत है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *