सोबरन मांझी से लेकर हेमंत सोरेन तक, जानें संघर्षों से भरी अनसुनी कहानी

झारखण्ड
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रांची। झारखंड के रामगढ़ जिले में एक छोटा सा गांव है नेमरा। इस गांव में पैदा हुए एक परिवार की कहानी काफी दिलचस्प है। आपको बता दें ये गांव झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन और उनके पूर्वजों का है। यह वही परिवार है, जिसने जुल्म और शोषण के खिलाफ संघर्ष की लंबी लड़ाई लड़ी है। आज हम बात करेंगे और आपको बतायेंगे मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के दादा सोबरन मांझी के बारे में जिन्होंने महाजनी प्रथा के खिलाफ पहली आवाज उठा कर बगावत की लड़ाई की शुरुआत की थी। महाजनी प्रथा के खिलाफ नीव रखने वाले सोबरन मांझी की संघर्ष को आगे बढ़ाने का काम उनके पुत्र शिव चरण मांझी (शिबू सोरेन का पुराना नाम) ने किया। यह गांव वीरता और साहस की केवल झारखंड ही नहीं, पूरे देश के मानचित्र पर चर्चित है। शिबू सोरेन के तीन पुत्र है। बड़े बेटे का दुर्गा सोरेन और मंझले बेटे का नाम हेमंत सोरेन और छोटे बेटे का नाम बसंत सोरेन है। बड़े बेटे दुर्गा सोरेन की मौत हो चुकी है। बड़े भाई दुर्गा की मौत के बाद मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन राजनीति में आए। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को पूरे देश मे कौन नहीं जानता है। हेमंत सोरेन झारखंड के लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों मे से एक है।




महाजनी प्रथा के असली नायक थे सोबरन सोरेन
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के दादा सोबरन सोरेन को उनके 65वें शहादत दिवस पर पूरे राज्य उन्हें अपने नम आँखों से याद करेंगे। गौरतलब हो कि 60 वर्ष पहले जब इलाके में महाजनी प्रथा कायम थी। उस शिबू सोरेन के पिता सोबरन मांझी ने महाजनों के खिलाफ लड़ाई छेड़ी थी। आपको बता दें के सोबरन सोरेन गांधीवादी विचारधारा के थे उनका सोंच हमेशा क्रांति और लोगों के भालाई की ओर रहता था। सोबरन सोरेन की शहादत कोई मामूली घटना नहीं थी। यह घटना 65 साल पुरानी है, महाजनी शोषण और गांव में शराबबंदी के खिलाफ आवाज उठता देख उन्होंने सोबरन सोरेन की हत्या करवा दी थी। वह तारीख थी 27 नवंबर 1957। जब उनकी हत्या हुई तब लोग समझ नहीं पाए के अब उनका क्या होगा परंतु जिस लड़ाई का आगाज किया था उन्हें पूरा करने के लिए सोबरन सोरेन के पुत्र शिबू सोरेन कालांतर में एक नायक के तौर पर उभरे और अन्याय और शोषण के खिलाफ संघर्ष के प्रतीक पुरुष बने। जिस वक्त सोबरन सोरेन की हत्या हुई, वह अपने गांव नेमरा से गोला हाइ स्कूल जा रहे थे। असल में उनके बेटे शिबू सोरेन इसी स्कूल के हॉस्टल में रह कर पढ़ाई कर रहे थे। सोबरन सोरेन उनके लिए एक बोरी में चावल लेकर जा रहे थे। इस हत्याकांड ने किशोर शिबू सोरेन के मन पर गहरा असर डाला। उनकी मां सोनामणि कई साल तक हजारीबाग कोर्ट के चक्कर लगाती रहीं, ताकि वह अपने पति के हत्यारों को सजा दिला सकें, लेकिन पुलिस और अदालत की चौखट पर चक्कर लगाते हुए उनका हौसला टूट गया। मां सोनामणि के साथ शिबू सोरेन भी रहते। आखिरकार थक-हारकर उन्होंने तय किया कि वह महाजनी प्रथा के खिलाफ संघर्ष करेंगे और शोषण-दमन के इस दुष्चक्र का खात्मा करेंगे। शिबू सोरेन पढ़ाई छोड़ जंगल में लकड़ी काटने जाते। उसी दौरान इलाके में सक्रिय कम्युनिस्ट नेता मंजूर हसन की निगाह शिबू सोरेन पर पड़ी। शिबू सोरेन के संघर्ष को उन्होंने दिशा दी। उनके साथ रह कर उनमें राजनीतिक चेतना भी पैदा हुई। शिबू सोरेन ने गांव के लोगों को एकजुट किया और महाजनों के खिलाफ धनकटनी आंदोलन शुरू कर दिया। महाजनों और सूदखोरों ने आदिवासियों की जिन जमीनों पर गलत तरीके से कब्जा कर रखा था, उसकी फसल एकजुट होकर काटी जाने लगी। इस आंदोलन की अगुवाई करते शिबू सोरेन के नाम का खौफ ऐसा था कि सूदखोरों-महाजनों की रुह कांपने लगी। बाद में शिबू सोरेन का संघर्ष व्यापक होता गया। वे संथालों के नायक बनकर उभरे। उन्हें पूरे समुदाय का गुरु माना गया। शिबू सोरेन के दिशोम गुरु बनने की कहानी के पीछे सोबरन मांझी की शहादत ही है।

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