हमास ने इसराइल पर अपने हमले का नाम क्यों रखा ‘ऑपरेशन अल अक़्सा’, जानिए इसकी पूरी कहानी

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फ़लस्तीन के चरमपंथी संगठन हमास ने बीते शनिवार इसराइल पर हमला किया , जिसमें सैकड़ों इसराइली नागरिकों की मौत हुई है.

हमास ने अपने इस अभियान को ‘ऑपरेशन अल-अक़्सा’ नाम दिया था. ये उस पवित्र स्थान का नाम है जो एक लंबे अरसे से यहूदियों और मुसलमानों के बीच तनाव का विषय बना हुआ है.

फ़िलहाल इस मस्जिद का प्रबंधन एक वक़्फ़ ट्रस्ट के पास है. इस मामले में यथास्थिति बनाए रखने के लिए किए गए समझौते के तहत इस ट्रस्ट का नियंत्रण जॉर्डन को दिया गया था.

इसराइली नियंत्रण वाले वेस्ट बैंक इलाक़े का प्रशासन देखने वाले फ़लस्तीन प्राधिकरण के अध्यक्ष महमूद अब्बास का अल-अक़्सा पर कोई नियंत्रण नहीं है.

अब्बास कहते हैं कि ‘मौजूदा हालात के लिए तमाम दूसरी वजहों के साथ-साथ इस्लामिक स्थानों जैसे अल-अक़्सा मस्जिद के प्रति इसराइल का आक्रामक रुख़ भी ज़िम्मेदार है.’

हालाँकि, इसराइल सरकार इस दावे का खंडन करती है.

इस साल अरब और इसराइली लोगों के बीच तनाव तब अपने चरम पर पहुँच गया था, जब इसराइली पुलिस ने परिसर में घुसकर लोगों को निकालने की कोशिश की.

इस घटना की तस्वीरों ने फ़लस्तीन ही नहीं पूरे मुस्लिम जगत में रोष पैदा किया.

ये घटनाएँ रमजान महीने और यहूदी त्योहार से पहले हुई थीं.

शनिवार को अंजाम दिए गए ऑपरेशन अल-अक़्सा और उसके बाद से ग़ज़ा पट्टी में जारी इसराइली आक्रमण के चलते इस मस्जिद की कहानी और ज़्यादा अहम हो गई है.

ये मस्जिद पुराने यरूशलम शहर के बीचों बीच स्थित है. मुस्लिम धर्मग्रंधों के मुताबिक़ अल-अक़्सा मस्जिद जिस पहाड़ी पर स्थित है, उसका नाम ‘अल-हराम-अल-शरीफ़’ है.

मस्जिद परिसर में मुस्लिम समुदाय के दो पवित्र स्थल हैं. पहला ‘डोम ऑफ द रॉक’.

इसका ज़िक्र क़ुरान के सुरा-17 में मिलता है. इसके मुताबिक़ जिस चट्टान पर गुंबद स्थापित है, वहाँ से पैग़ंबर मोहम्मद ने जन्नत की यात्रा की थी.

दूसरी जगह ख़ुद अल-अक़्सा मस्जिद है, जिसका अरबी में मतलब होता है ‘प्रार्थना का सबसे दूर स्थान.’ इसका निर्माण 8वीं शताब्दी में किया गया था.

इस्लाम में ये तीसरी सबसे पवित्र जगह मानी जाती है.

इस्लामी धर्मग्रंथों के मुताबिक़ 620 ईस्वी में पैग़ंबर मोहम्मद को मक्का से अल अक़्सा ले जाया गया था, जहाँ से उन्होंने एक ही रात में जन्नत की यात्रा पूरी की थी.

क़ुरान के मुताबिक़ जिन लोगों ने यहाँ धर्मस्थली का निर्माण किया, उनमें इब्राहिम, दाऊद, सुलेमान, इलियास और ईशा शामिल है. इन सभी को क़ुरान में पैग़ंबर माना गया है.

मुस्लिम इस जगह पर पूरे साल आते हैं. लेकिन रमजान महीने का हर शुक्रवार यहाँ के लिए बेहद ख़ास है. इस दिन दुनिया भर से बड़ी तादाद में मुस्लिम यहाँ नमाज़ पढ़ने के लिए आते हैं.

14 एकड़ में फैले अल-अक़्सा को यहूदी भी अपना सबसे पवित्र प्रार्थना स्थल मानते हैं. वो इसे ‘हर हा बइत’ या टेंपल माउंट कहते हैं.

यहूदी मान्यताओं के मुताबिक़ 3000 साल पहले किंग सोलोमोन ने यहाँ सबसे पहले एक मंदिर का निर्माण किया था. जो दूसरा यहूदी मंदिर यहाँ बनाया गया था, उसे साल 70 में रोमनों ने ध्वस्त कर दिया था.

यहूदियों का विश्वास है कि बाइबल में जिन यहूदी मंदिरों का ज़िक्र किया गया है, वे यहीं थे.

इस परिसर की पश्चिमी दीवार ‘वेलिंग वॉल’ (शोक की दीवार) के तौर पर जानी जाती है. माना जाता है कि यह यहूदी मंदिर का अंश है. जबकि मुसलमान इसे अल-बुराक़ की दीवार कहते हैं.

ऐसी मान्यता है कि यहीं पर पैग़ंबर मोहम्मद साहब ने अल-बुराक़ नाम के जानवर को बांध रखा था. इसी से उन्होंने जन्नत की यात्रा की थी और वहाँ अल्लाह से संवाद किया था.

इसलिए यह मुसलमानों के लिए बेहद पवित्र मानी जाती है.

अल-अक़्सा मस्जिद पर किसका नियंत्रण है?

इसराइल ने अरब देशों के साथ 1967 की जंग के बाद मस्जिद परिसर के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा जमा लिया था.

इसके बाद इसराइल ने इस हिस्से को पूर्वी यरूशलम और वेस्ट बैंक के कुछ हिस्सों के साथ अलग कर लिया था.

उस वक़्त ये हिस्सा मिस्र और जॉर्डन के नियंत्रण में था. हालाँकि इसराइल के कब्ज़े को आज तक अंतरराष्ट्रीय मान्यता नहीं मिली.

आज भी यहाँ के दोनों मुस्लिम पवित्र स्थानों का संरक्षक जॉर्डन का ‘हैशमाइट साम्राज्य’ है.

यही आज भी मस्जिद की देख-भाल करने वाले इस्लामिक वक़्फ़ के सदस्यों का चुनाव करता है. इसमें इसराइली सरकार की कोई भूमिका नहीं होती.

अल-अक़्सा परिसर में ग़ैर-मुस्लिमों को भी जाने की इज़ाजत है. लेकिन इसके अंदरुनी हिस्से में प्रार्थना की इज़ाजत सिर्फ़ मुस्लिम लोगों को ही है.

जहाँ तक यहूदी मान्यताओं का सवाल है, तो इसके प्रमुख धर्मगुरु यहूदी लोगों को ‘टैंपल माउंट’ के अंदर नहीं जाने का निर्देश देते हैं. इनकी नज़र में ये जगह इतनी पवित्र है कि यहाँ क़दम नहीं रखा जा सकता.

इसराइली सरकार यहूदी और ईसाई लोगों को यहाँ सिर्फ़ सैलानी के तौर पर जाने की मान्यता देती है. वो भी सप्ताह के सिर्फ़ पाँच दिन कुछ घंटों के लिए.

दोनों पक्षों के बीच किस बात पर विवाद है?

1967 में पश्चिमी तट, गज़ा पट्टी और पुराने शहर समेत पूर्वी यरूशलम पर इसराइल के क़ब्ज़े के बाद से ही यह जगह विवादित बनी हुई है. हालाँकि इसे लेकर विवाद इसराइल के अस्तित्व से पहले से चला आ रहा है.

1947 में संयुक्त राष्ट्र ने अलग फ़लस्तीनी क्षेत्र के लिए एक विभाजन प्लान बनाया. उस वक्त फ़लस्तीन ब्रिटेन के क़ब्ज़े में था.

इस प्लान के मुताबिक़ दो देश बनाए जाने थे, एक यूरोप से आए यहूदियों के लिए और दूसरा फ़लस्तीनियों के लिए .

यहूदियों को 55 फ़ीसदी ज़मीन दी गई और बाक़ी 45 फ़ीसदी फ़लस्तीनियों को दी गई.

यरूशलम, जहाँ अल-अक़्सा परिसर मौजूद है, संयुक्त राष्ट्र प्रशासन के तहत अंतरराष्ट्रीय समुदाय का घोषित कर दिया गया.

1948 में इसराइल ने वेस्ट बैंक और ग़ज़ा पट्टी समेत 72 फ़ीसदी ज़मीन कर क़ब्ज़ा कर लिया और ख़ुद को एक स्वतंत्र देश घोषित कर दिया.

इसके बाद 1967 में दूसरे अरब-इसराइल युद्ध के बाद इसराइल ने पूर्वी यरूशलम शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया और इस तरह शहर के पुराने इलाक़े में मौजूद अल-अक़्सा परिसर भी उसके नियंत्रण में आ गया.

इसराइल ने इसे जॉर्डन से क़ब्ज़े से लिया था. लेकिन पवित्र स्थलों पर नियंत्रण को लेकर विवाद के बाद यथास्थिति बनाए रखने के लिए एक व्यवस्था बनाई गई.

इस व्यवस्था के तहत जॉर्डन को इस जगह का संरक्षक (कस्टोडियन) बनाया गया, जबकि इसराइल को सुरक्षा व्यवस्था संभालने का ज़िम्मा मिला.

लेकिन सिर्फ़ मुस्लिमों को ही नमाज़ पढ़ने की इजाज़त मिली. यहूदी यहाँ आ सकते थे लेकिन उनके लिए प्रार्थना करना मना था.

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